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सामुदायिक सहयोग हेतु कार्य-योजना निर्माण कैसे करें?

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विद्यालय प्रबंध समिति (SMC) के सदस्य विद्यालय और समुदाय के बीच प्रमुख सेतु हं भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक विद्यालय को एस०एम०सी0 सहयोग से सामुदायिक सहयोग की कार्य योजना विकसित करनी होगी। कार्य योजना के संभावित क्षेत्र निम्नवत हो सकते हैं। (अ) भौतिक संसाधन-चहारदिवारी, पंखा, फर्नीचर, स्टेशनरी, पेयजल, स्मार्ट बोर्ड, शैक्षिक तकनीकी से संबंधित उपकरण आदि। (ब) मानवीय संसाधन-सामुदायिक संसाधनों का कक्षा-कक्षीय एवं अन्य सहशैक्षिक क्रियाकलाप में उपयोग।  उक्त बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में हमें अपनी संस्था उपलब्ध भौतिक / मानवीय संसाधनों की उपलब्धता की समीक्षा करने के बाद विद्यालय की आवश्यकताओं का चिह्नांकन करना होगा तदुपरान्त उन आवश्यकताओं का वर्गीकरण करते हुए सामुदायिक सहभागिता के प्रकार को स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हुए समुदाय से संपर्क स्थापित करना होगा।  इस प्रकार आवश्यकताओं के अनुसार संदर्भों/ स्रोतों की मदद लेते हुए कार्य योजना विकसित कर हम अपने कार्य को और बेहतर बना सकते हैं तथा समुदाय से बेहतर जुड़ाव स्थापित कर सकते हैं ।             सामुदायिक सहयोग की कार्य योज

शिक्षण के तरीके और गतिविधियाँ

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परिवेश, पर-परिवार, कक्षा-कक्षा में उपलब्ध विभिन्न आकृति की वस्तुओं पर बातचीत करने छूकर पता करने, उलटने--पलटने एवं विविध रूपों में जमाने के अनुभव का भीका देने से बच्चों में ज्यामितीय आकृति सम्बन्धी अवधारणात्मक समझ का विकास होता है। यह समझ निम्नांकित रूपों में हो सकती है- एक ही आकृति के कई रूप हो सकते हैं। एक ही आकृति में एक से अधिक रूप समाहित होते हैं। एक आकृति के अलग-अलग संयोजन से नयी आकृतियाँ बनती हैं। अलग-अलग प्रकार की आकृतियों को समझने के लिए एक ही प्रकार के तरीके कारगर नहीं होते अर्थात प्रत्येक प्रकार की आकृति को एक ही प्रकार से नहीं समझा जा सकता। इस प्रक्रिया के दौरान बच्चे यह भी समझने व अनुभव करने में समर्थ हो जाते हैं कि गेंद और गोले का चित्र उसे पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाता है।  यह वृत्ताकार क्षेत्र से किस प्रकार भिन्म है? इन आकृतियों की समझ उन्हें आगे चलकर परिमाप, क्षेत्रफल एवं आयतन तक किस प्रकार ले जाती है? इनके अवधारणात्मक समझ के विकास के लिए शुरुआती कक्षाओं में आगे दिए गए सुझाव और गतिविधियों का शिक्षण में प्रयोग बच्चों के सीखने में सार्थक प्रभाव लाएगा। गतिविधि-1, अपर द

विद्यालयों में सहशैक्षिक गतिविधियों को कैसे क्रियान्वित करें?

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प्रारम्भिक विद्यालयों में सह शैक्षिक गतिविधियों के आयोजन में प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक की भूमिका को निम्नवत् देखा जा सकता है।  • विद्यालयों में सहशैक्षिक गतिविधियों को कैसे क्रियान्वित करें, इसके बारे में परस्पर चर्चा करना तथा आवश्यक सहयोग प्रदान करते हुए निरंतर संवाद बनाये रखना। क्रियाकलापों का अनुश्रवण करना तथा आयी हुई समस्याओं का निराकरण सभी की सहभागिता द्वारा करना। इन क्रियाकलापों में बालिकाओं की सहभागिता अधिक से अधिक हो साथ ही साथ सभी छात्रों की प्रतिभागिता सुनिश्चित हो, इस हेतु सामूहिक जिम्मेदारी लेना।। • समय सारिणी में खेलकूद/ पीटी,ड्राइंग, क्राफ्ट, संगीत, सिलाई/बुनाई व विज्ञान के कार्यों प्रतियोगिताएं हेतु स्थान व वादन को सुनिश्चित करना।  • स्कूलों में माहवार/त्रैमासिक कितनी बार किस प्रकार की प्रतियोगिताएं कराई गई, इसकी जानकारी प्राप्त करना एवं रिकार्ड करना। बच्चों के स्तर एवं रुचि के अनुसार कहानियां, चुटकुले, कविता आदि का संकलन स्वयं करना तथा बच्चों से कराना।  • विज्ञान/गणित सम्बन्धी प्रतियोगिताओं हेतु विषय से सम्बन्धित प्रश्न बैंक रखना। आवश्यक वस्तुओं का संग्रह रखना। जन सहभाग

समुदाय को विद्यालय से कैसे जोड़ें?

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यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है जिससे हमारे बहुत से विद्यालयों को जूझना पड़ता है।  लगातार सरकारी/विभागीय निर्देशों और एस०एम०सी0 के गठन के बावजूद हममें से अधिकांश शिक्षक अभी भी अपने विद्यालयों से समुदाय को अपेक्षानुरूप नहीं जोड़ पा रहे हैं। इस मुद्दे की पड़ताल पर जाने से पूर्व सबसे पहले हम यह विचार करें कि हमने पिछले छह महीने में कब-कब और किस उद्देश्य से समुदाय के लोगों को स्कूल में बुलाया था या उनसे मुलाकात की थी। हम पाएँगे कि यह मुलाकातें या निमंत्रण बहुत सीमित मात्रा में तथा औपचारिक ही ज्यादा थे।  समुदाय के व्यक्तित्व किन्हीं राष्ट्रीय पर्वों या सभाओं में विद्यालय आए भी तो उनकी भूमिका कार्यक्रम में मूक दर्शक की तरह बैठे रहना भर ही रही।  स्वाभाविक है कि खाली बैठे रहने (निरुददेश्य) की भूमिका में स्वयं को पाकर समुदाय का व्यक्ति हमारे पास आखिर क्यों और कब तक आता जाता रहेगा ? आज हम सभी का जीवन विभिन्न प्रकार की व्यस्तताओं से भरा है और समुदाय के हर व्यक्ति ।  सबकी कमोबेश यही स्थिति है। समय नहीं मिल पाया आज के दौर का ऐसा वाक्य है कि जिसे हर तीसरा व्यक्ति कहता मिल जाता है। स्वाभाविक भी है

बाल संसद : उद्देश्य, शिक्षक की भूमिका, बाल संसद गठन, एवं समितियों के प्रमुख कार्य

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  बाल संसद क्या है?  बालक- बालिकाओं का एक मंच जिसका प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में गठन किया जाता है।   बाल संसद के उद्देश्य :  जीवन मूल्यों का विकास व्यक्तित्व विकास, नेतृत्व क्षमता, निर्णय लेने का क्षमता, सही/गलत स्पर्श की समझ, समय प्रबन्ध इत्यादि पर स्पष्ट समझ। शिक्षक की भूमिका:  बाल संसद के संयोजक के रूप में सहयोग करना।               मंत्रिमण्डल/स्वरूप /गठन समितियां:  1. प्रधानमंत्री                             1 व 2 में एक छात्रा का चयन अवश्य हो। 2 उप-प्रधानमंत्री 3. शिक्षा मंत्री                             सह मीना मंच मंत्री (अनिवार्य रूप से छात्रा है) 4. उपशिक्षा मंत्री 5, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता मंत्री 6. उप स्वास्थ्य एवं स्वच्छता मंत्री 7. जल एवं कृषि मंत्री 8. उप जल एवं कृषि मंत्री 9. पुस्तकालय एवं विज्ञान मंत्री  10. उप पुस्तकालय एवं विज्ञान मंत्री 11. साँस्कृतिक एवं खेल मंत्री 12 उप साँस्कृतिक एवं खेल मंत्री                             समितियों के प्रमुख कार्य मंत्रिमण्डल                                               कार्य प्रधानमंत्री                          विश

विद्यालयी शिक्षा में नयी पहलें, अधिगम के उद्देश्य एवम विद्यालयी शिक्षा के लिए समेकित योजना

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शिक्षा, मानव संसाधन विकास का मूल है जो देश की सामाजिक-आर्थिक बनावट को संतुलित करने में महत्वपूर्ण और सहायक भूमिका निभाती है बेहतर गुणवत्ता का जीवन प्राप्त करने के लिए एवं अच्छा नागरिक बनने के लिए बच्चों का चहुँमुखी विकास जरूरी है।  शिक्षा की एक मजबूत नींव के निर्माण से इसे प्राप्त किया जा सकता है। इस मिशन के अनुसरण में, मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एम.एच.आर.डी.) दो विभागों के माध्यम से काम करता है   स्कूली शिक्षा और साक्षरता   उच्च शिक्षा विभाग  जहाँ विद्यालय शिक्षा और साक्षरता विभाग देश में स्कूली शिक्षा के विकास के लिए जिम्मेदार है, वहीं उच्च शिक्षा विभाग, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा व्यवस्था में से एक की देखभाल करता है।  एम.एच.आर.डी. अपने संगठनों जैसे एन.सी.ई.आर.टी, एन.आई.ई.पी.ए. एन.आई.ओ.एस., एन.सी.टी.ई. आदि के साथ मिलकर काम कर रहा है। हालाँकि एम.एच.आर.डी. का दायरा बहुत व्यापक है, यह मॉड्यूल डी.ओ.एस.ई.एल. द्वारा सार्वभौमिक शिक्षा और इसकी गुणवत्ता में सुधार की दिशा में हाल में किए गए प्रयासों पर केंद्रित है। अधिगम के उद्देश्य इस मॉड्यूल के अध्यय

विद्यालय व्यवस्था : शिक्षकों के कौशल, विविधता की स्वीकार्यता और समाधान

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विद्यार्थियों में अंतर की पहचान करने के लिए संवेदनशीलता विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के गुणों और कमजोरियों, योग्यता और रुचि के बारे में जागरूक होना।  • विद्यार्थियों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक, सामाजिक आर्थिक और भौतिक विविधताओं की स्वीकृति—सामाजिक संरचना, पारंपरिक और सांस्कृतिक प्रथाओं, प्राकृतिक आवास, घर तथा पड़ोस में परिवेश को समझना। • मतभेदों की सराहना करना और उन्हें संसाधन के रूप में मानना- अधिगम प्रक्रिया में बच्चों के विविध संदर्भ और ज्ञान का उपयोग करना शिक्षण-अधिगम की विभिन्न जरूरतों को समझने के लिए समानुभूति और कार्य- अधिगम शैलियों पर विचार करना और उसी के अनुसार प्रतिक्रिया देना।  शिक्षार्थियों को विभिन्न विकल्प प्रदान करने के लिए संसाधन जुटाने की क्षमता- आस-पास से कम लागत की सामग्री, कलाकृतियों, अधिगम उपयोगी सहायक स्थानों, मानव संसाधनों और मुद्रित तथा डिजिटल रूप में अनेक संसाधनों को पहचानना एवं व्यवस्थित करना। • प्रौद्योगिकी के उपयोग से अधिगम सहायता करना- विभिन्न एप्लिकेशन का उपयोग। उदाहरण के लिए गूगल आर्ट एंड कल्चर, गूगल स्काई, गूगल अर्थ, विषय विशिष्ट ऐप्स जियोजेब्रा, ट्रक्स ऑफ़

'द एनिमल स्कूल' (जानवरों का विद्यालय)-विश्लेषण के लिए एक कहानी

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 एक बार जानवरों ने फैसला किया कि उन्हें 'नयी दुनिया की समस्याओं को संबोधित करने के लिए कुछ अलग करना होगा, इसलिए उन्होंने एक विद्यालय तैयार किया। उन्होंने दौड़, चढ़ाई, तैराकी और उड़ान से जुड़ी एक गतिविधि पाठ्यचर्या को अपनाया। पाठ्यचर्या संचालन आसान बनाने के लिए सभी जानवरों को प्रत्येक विषय लेना आवश्यक बनाया गया।  बत्तख तैराकी में उत्कृष्ट थी। वास्तव में, अपने प्रशिक्षण से भी बेहतर थी, लेकिन उड़ान में उसे केवल पास होने लायक ग्रेड मिले और वह दौड़ने में बहुत कमजोर थी।  चूँकि दौड़ने में वह बेहद कमज़ोर थी, इसलिए उसे दौड़ने का अभ्यास करने के लिए विद्यालय के बाद रुकना पड़ा और तुर्की भी छोड़नी पड़ी। ऐसा तब तक किया गया, जब तक कि तैरने में सहायक उसके जालीदार पैर खराब नहीं हो गए और वह तैराकी में औसत स्तर पर आ गई, लेकिन विद्यालय में औसत स्वीकार्य था।  इसलिए किसी को भी इस बात की ज़रा-सी भी चिंता नहीं थी, सिवाय बत्तख के खरगोश ने अपनी शुरुआत कक्षा में दौड़ने में अव्वल आने से की, लेकिन तैराकी में उसे इतना सारा काम (अभ्यास एवं पूरक) करना पड़ा कि उसका मानसिक संतुलन जैसे बिगड़ ही गया था।  गिलहरी चढ

सीखने के प्रतिफल, शिक्षण-विधियाँ, समावेशी शिक्षा में आ शिक्षकों की भूमिका

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रा.शै.अ.प्र.प. ने सीखने के प्रतिफल को विकसित किया है जो पठन सामग्री को रटकर याद करने पर आधारित मूल्यांकन से दूर हटाने के लिए बनाया गया है।  योग्यता (सीखने के प्रतिफल) आधारित मूल्यांकन पर जोर देकर, शिक्षकों और पूरी व्यवस्था को यह समझने में मदद की गई है कि बच्चे ज्ञान, कौशल और सामाजिक-व्यक्तिगत गुणों और दृष्टिकोणों में परिवर्तन के मामले में वर्ष के दौरान एक विशेष कक्षा में क्या हासिल करेंगे।  सीखने के प्रतिफल ज्ञान और कौशल से परिपूर्ण ऐसे कथन हैं जिन्हें बच्चों को एक विशेष कक्षा या पाठ्यक्रम के अंत तक प्राप्त करने की आवश्यकता है और यह अधिगम संवर्धन की उन शिक्षणशास्त्रीय विधियों से समर्थित हैं जिनका क्रियान्वयन शिक्षकों द्वारा करने की आवश्यकता है।  ये कथन प्रक्रिया आधारित हैं और समग्र विकास के पैमाने पर बच्चे की प्रगति का आकलन करने के लिए गुणात्मक या मात्रात्मक दोनों तरीके से जाँच योग्य बिंदु प्रदान करते हैं। पर्यावरणीय अध्ययन के लिए सीखने के दो प्रतिफल नीचे दिए गए हैं। . विद्यार्थी विभिन्न आयुवर्ग के लोगों, जानवरों और पक्षियों में भोजन तथा पानी की आवश्यकता, भोजन और पानी की उपलब्धता तथा घ

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या(एन.सी.एफ. 2005 ) की रूपरेखा – ऐतिहासिक अवलोकन (पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें और विशेषताएँ)

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एन.सी.एफ. 2005 एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। कक्षा-कक्ष के संबंध में इसके निहितार्थों को अधिक गहराई से समझने से पहले विभिन्न नीतियों और रूपरेखाओं के ऐतिहासिक अवलोकन की आवश्यकता है।  पाठ्यचर्या संबंधित सामग्री विकास की संस्कृति के साथ, रा.शै.अ.प्र.प. (एन.सी.ई.आर.टी.) की स्थापना 1961 में हुई थी और 1975 में पहली पाठ्यचर्या रूपरेखा विकसित की गई थी।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुवर्तन के रूप में रा.शै.अ.प्र.प. ने वर्ष 1988 में प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा नामक एक और पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार की। इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 द्वारा सुझाए गए सर्वमान्य मूल सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया। वर्ष 2000 में, स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2000 तैयार की गई।  इस पाठ्यचर्या का मुख्य ज़ोर अधिगम पर था, जो ऐसी शिक्षा की ओर ले जाता हो जो असमानता से लड़ने में मदद करती है और विद्यार्थियों की सामाजिक, सांस्कृतिक,भावनात्मक तथा आर्थिक आवश्यकताओं को संबोधित करती है। एन.सी.एफ. 2005 वर्ष 2005 में, रा.शै.अ.प्र.प. ने स्कूली शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर