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सीखने के प्रतिफल, शिक्षण-विधियाँ, समावेशी शिक्षा में आ शिक्षकों की भूमिका

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रा.शै.अ.प्र.प. ने सीखने के प्रतिफल को विकसित किया है जो पठन सामग्री को रटकर याद करने पर आधारित मूल्यांकन से दूर हटाने के लिए बनाया गया है।  योग्यता (सीखने के प्रतिफल) आधारित मूल्यांकन पर जोर देकर, शिक्षकों और पूरी व्यवस्था को यह समझने में मदद की गई है कि बच्चे ज्ञान, कौशल और सामाजिक-व्यक्तिगत गुणों और दृष्टिकोणों में परिवर्तन के मामले में वर्ष के दौरान एक विशेष कक्षा में क्या हासिल करेंगे।  सीखने के प्रतिफल ज्ञान और कौशल से परिपूर्ण ऐसे कथन हैं जिन्हें बच्चों को एक विशेष कक्षा या पाठ्यक्रम के अंत तक प्राप्त करने की आवश्यकता है और यह अधिगम संवर्धन की उन शिक्षणशास्त्रीय विधियों से समर्थित हैं जिनका क्रियान्वयन शिक्षकों द्वारा करने की आवश्यकता है।  ये कथन प्रक्रिया आधारित हैं और समग्र विकास के पैमाने पर बच्चे की प्रगति का आकलन करने के लिए गुणात्मक या मात्रात्मक दोनों तरीके से जाँच योग्य बिंदु प्रदान करते हैं। पर्यावरणीय अध्ययन के लिए सीखने के दो प्रतिफल नीचे दिए गए हैं। . विद्यार्थी विभिन्न आयुवर्ग के लोगों, जानवरों और पक्षियों में भोजन तथा पानी की आवश्यकता, भोजन और पानी की उपलब्धता तथा घ

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या(एन.सी.एफ. 2005 ) की रूपरेखा – ऐतिहासिक अवलोकन (पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें और विशेषताएँ)

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एन.सी.एफ. 2005 एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। कक्षा-कक्ष के संबंध में इसके निहितार्थों को अधिक गहराई से समझने से पहले विभिन्न नीतियों और रूपरेखाओं के ऐतिहासिक अवलोकन की आवश्यकता है।  पाठ्यचर्या संबंधित सामग्री विकास की संस्कृति के साथ, रा.शै.अ.प्र.प. (एन.सी.ई.आर.टी.) की स्थापना 1961 में हुई थी और 1975 में पहली पाठ्यचर्या रूपरेखा विकसित की गई थी।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुवर्तन के रूप में रा.शै.अ.प्र.प. ने वर्ष 1988 में प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा नामक एक और पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार की। इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 द्वारा सुझाए गए सर्वमान्य मूल सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया। वर्ष 2000 में, स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2000 तैयार की गई।  इस पाठ्यचर्या का मुख्य ज़ोर अधिगम पर था, जो ऐसी शिक्षा की ओर ले जाता हो जो असमानता से लड़ने में मदद करती है और विद्यार्थियों की सामाजिक, सांस्कृतिक,भावनात्मक तथा आर्थिक आवश्यकताओं को संबोधित करती है। एन.सी.एफ. 2005 वर्ष 2005 में, रा.शै.अ.प्र.प. ने स्कूली शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर

ध्यानाकर्षण (अधिगम आधारित शिक्षण) की आवश्कता एवं उद्देश्य

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किसी भी कक्षा में कुछ बच्चे अपनी कक्षा एवं आयु के अनुसार अधिगम सम्प्राप्ति स्तर अर्थात् परीक्षाओं तुलनात्मक रूप से कम अंक प्राप्त कर पाते हैं तथा उनका परीक्षा परिणाम भी सामान्य  बच्चों की तुलना में संतोषजनक नहीं होता है।  प्रायः देखा गया है कि शिक्षक द्वारा विभिन्न शैक्षणिक प्रयासों के बावजूद बच्चों में भाषा कौशलों को ग्रहण करने में कठिनाई होती रही है।  उदाहरणस्वरूप लिखने में वर्तनी की अशुद्धियाँ, वर्णों-शब्दों को पहचानने में कठिनाई तथा उच्चारण में काफी अशुद्धियाँ देखी गई हैं। इसके अलावा बच्चों में भाषा ज्ञान के बावजूद बोलने व बातचीत में झिझक महसूस करने जैसी समस्याएँ देखी ग हैं।  इसी प्रकार गणित विषय में अंकों व चिह्नों की पहचान, संख्याओं के आरोही व अवरोही क्रम को समझने, जोड़, घटाना, गुणा व भाग तथा अधूरी गिनती को पूरा करना जैसी गणितीय क्रियाओं में या तो वे अशुद्धियाँ करते हैं या समझ नहीं पाते हैं।  यही हाल लगभग अन्य विषयों में भी होता है। क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे शैक्षिक तौर पिछड़ रहे बच्चे हमारे विद्यालयों से निराश न हो और उनमें पुनः आत्मविश्वास की जागृति हो और वे भी परीक्षा में अच